राजस्थान की चित्र शैलियां

 राजस्थान की चित्र शैलियां 
राजस्थान की चित्रकला शैली पर गुजरात तथा कश्मीर की शैलियों का प्रभाव रहा है।

राजस्थानी चित्रकला के विषय

1. पशु-पक्षियों का चित्रण 2. शिकारी दृश्य 3. दरबार के दृश्य 4. नारी सौन्दर्य 5. धार्मिक ग्रन्थों का चित्रण आदि

राजस्थानी चित्रकला शैलियों की मूल शैली मेवाड़ शैली है।

सर्वप्रथम आनन्द कुमार स्वामी ने सन् 1916 ई. में अपनी पुस्तक "राजपुताना पेन्टिग्स" में राजस्थानी चित्रकला का वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया।

भौगौलिक आधार पर राजस्थानी चित्रकला शैली को चार भागों में बांटा गया है। जिन्हें स्कूलस कहा जाता है।


1.मेवाड़ स्कूल:- उदयपुर शैली, नाथद्वारा शैली, चावण्ड शैली, देवगढ़ शैली, शाहपुरा, शैली।

2.मारवाड़ स्कूल:- जोधपुर शैली, बीकानेर शैली जैसलमेर शैली, नागौर शैली, किशनगढ़ शैली।

3.ढुढाड़ स्कूल:- जयपुर शैली, आमेर शैली, उनियारा शैली, शेखावटी शैली, अलवर शैली।

4.हाडौती स्कूल:- कोटा शैली, बुंदी शैली, झालावाड़ शैली।

शैलियों की पृष्ठभूमि का रंग

हरा - जयपुर की अलवर शैली

गुलाबी/श्वेत - किशनगढ शैली

नीला - कोटा शैली

सुनहरी - बूंदी शैली

पीला - जोधपुर व बीकानेर शैली

लाल - मेवाड़ शैली

पशु तथा पक्षी

हाथी व चकोर - मेवाड़ शैली

चील/कौआ व ऊंठ - जोधपुर तथा बीकानेर शैली

हिरण/शेर व बत्तख - कोटा तथा बूंदी शैली

अश्व व मोर:- जयपुर व अलवर शैली

गाय व मोर - नाथद्वारा शैली

 वृक्ष

पीपल/बरगद - जयपुर तथा अलवर शैली

खजूर - कोटा तथा बूंदी शैली

आम - जोधपुर तथा बीकानेर शैली

कदम्ब - मेवाड़ शैली

केला - नाथद्वारा शैली

नयन/आंखे

खंजर समान - बीकानेर शैली

मृग समान - मेवाड शैली

आम्र पर्ण - कोटा व बूंदी शैली

मीन कृत:- जयपुर व अलवर शैली

कमान जैसी - किशनगढ़ शैली

बादाम जैसी - जोधपुर शैली


1. मेवाड़ स्कूल

उदयपुर शैली

राजस्थानी चित्रकला की मूल शैली है।

शैली का प्रारम्भिक विकास कुम्भा के काल में हुआ।

शैली का स्वर्णकाल जगत सिंह प्रथम का काल रहा।

महाराणा जगत सिंह के समय उदयपुर के राजमहलों में "चितेरोंरी ओवरी" नामक कला विद्यालय खोला गया जिसे "तस्वीरों रो कारखानों "भी कहा जाता है।

विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतन्त्र नामक ग्रन्थ में पशु-पक्षियों की कहानियों के माध्यम से मानव जीवन के सिद्वान्तों को समझाया गया है।

पंचतन्त्र का फारसी अनुवाद "कलिला दमना" है, जो एक रूपात्मक कहानी है। इसमें राजा तथा उसके दो मंत्रियों कलिता व दमना का वर्णन किया गया है।

उदयपुर शैली में कलिला और दमना नाम से चित्र चित्रित किए गए थे।

सन 1260-61 ई. में मेवाड़ के महाराणा तेजसिंह के काल में इस शैली का प्रारम्भिक चित्र श्रावक प्रतिकर्मण सूत्र चूर्णि आहड़ में चित्रित किया गया। जिसका चित्रकार कमलचंद था।


सन् 1423 ई. में महाराणा मोकल के समय सुपासनह चरियम नामक चित्र चित्रकार हिरानंद के द्वारा चित्रित किया गया।

प्रमुख चित्रकार - मनोहर लाल, साहिबदीन (महाराणा जगत सिंह -प्रथम के दरबारी चित्रकार) कृपा राम, अमरा आदि।

चित्रित ग्रन्थ - 1. आर्श रामायण - मनोहर व साहिबदीन द्वारा। 2. गीत गोविन्द - साहबदीन द्वारा।

चित्रित विषय -मेवाड़ चित्रकला शैली में धार्मिक विषयों का चित्रण किया गया।

इस शैली में रामायण, महाभारत, रसिक प्रिया, गीत गोविन्द इत्यादि ग्रन्थों पर चित्र बनाए गए। मेवाड़ चित्रकला शैली पर गुर्जर तथा जैन शैली का प्रभाव रहा है।

नाथ द्वारा शैली

नाथ द्वारा मेवाड़ रियासत के अन्र्तगत आता था, जो वर्तमान में राजसमंद जिले में स्थित है।

यहां स्थित श्री नाथ जी मंदिर का निर्माण मेवाड़ के महाराजा राजसिंह न 1671-72 में करवाया था।

यह मंदिर पिछवाई कला के लिए प्रसिद्ध है, जो वास्तव में नाथद्वारा शैली का रूप है।

इस चित्रकला शैली का विकास मथुरा के कलाकारों द्वारा किया गया।

महाराजा राजसिंह का काल इस शैली का स्वर्ण काल कहलाता है।

चित्रित विषय - श्री कृष्ण की बाल लीलाऐं, गतालों का चित्रण, यमुना स्नान, अन्नकूट महोत्सव आदि।

चित्रकार - खेतदान, घासीराम आदि।

देवगढ़ शैली

इस शैली का प्रारम्भिक विकास महाराजा द्वाारिकादास चुडावत के समय हुआ।

इस शैली को प्रसिद्धी दिलाने का श्रेय डाॅ. श्रीधर अंधारे को है।

चित्रकार - बगला, कंवला, चीखा/चोखा, बैजनाथ आदि।

शाहपुरा शैली

यह शैली भीलवाडा जिले के शाहपुरा कस्बे में विकसित हुई।

शाहपुरा की प्रसिद्ध कला फडु चित्रांकन में इस चित्रकला शैली का प्रयोग किया जाता है।

फड़ चित्रांकन में यहां का जोशी परिवार लगा हुआ है।

श्री लाल जोशी, दुर्गादास जोशी, पार्वती जोशी (पहली महिला फड़ चित्रकार) आदि

चित्र - हाथी व घोड़ों का संघर्ष (चित्रकास्ताजू)

चावण्ड शैली

इस शैली का प्रारम्भिक विकास महाराणा प्रताप के काल में हुआ।

स्वर्णकाल -अमरसिंह प्रथम का काल माना जाता है।

चित्रकार - जीसारदीन इस शैली का चित्रकार हैं



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